रात भर की ये इबादत और दुआ कुछ भी नहीं
दिल अगर बेसिम्त हो किबलानुमा कुछ भी नहीं
अक़्ल हैरां है कि क्या हो लज़्ज़ते दुनिया की हद
नेमतों में तेरी मौला बेमज़ा कुछ भी नहीं
देखिये तो उम्र भर हम किस क़दर मसरूफ़ थे
सोचिये तो जिन्दगी भर क्या किया कुछ भी नहीं
कुछ नहीं है सुर्ख आंचल की चमक तेरे बग़ैर
और हथेली पर मिरी रंगे हिना कुछ भी नहीं
बेदिली, बेख़्वाहिशी के दौर में लौटे हो तुम
अब मुझे तुमसे कोई शिकवा गिला कुछ भी नहीं
3 comments:
देखिये तो उम्र भर हम किस क़दर मसरूफ़ थे
सोचिये तो जिन्दगी भर क्या किया कुछ भी नहीं
kitni sachchi baat kahi di....
नुसरत जी,
आप कमाल का लिखती हैं...
कृप्या और ग़ज़लें और नज्में पोस्ट करें.
नुसरत जी,
बहुत ही उम्दा गज़ल है. मतला गज़ब का है.
"देखिये तो उम्र भर हम किस क़दर मसरूफ़ थे
सोचिये तो जिन्दगी भर क्या किया कुछ भी नहीं"
लाजवाब है.
"कुछ नहीं है सुर्ख आँचल की चमक तेरे बगैर,
और हथेली पर मिरी रंगे हिना कुछ भी नहीं."
वाह.
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