Thursday, August 26, 2010

रात भर की ये इबादत और दुआ कुछ भी नहीं : एक ग़ज़ल

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रात भर की ये इबादत और दुआ कुछ भी नहीं

दिल अगर बेसिम्‍त हो किबलानुमा कुछ भी नहीं



अक्‍़ल हैरां है कि क्‍या हो लज्‍़ज़ते दुनिया की हद

नेमतों में तेरी मौला बेमज़ा कुछ भी नहीं



देखिये तो उम्र भर हम किस क़दर मसरूफ़ थे

सोचिये तो जिन्‍दगी भर क्‍या किया कुछ भी नहीं



कुछ नहीं है सुर्ख आंचल की चमक तेरे बग़ैर

और हथेली पर मिरी रंगे हिना कुछ भी नहीं



बेदिली, बेख्‍़वाहिशी के दौर में लौटे हो तुम

अब मुझे तुमसे कोई शिकवा गिला कुछ भी नहीं

Tuesday, July 27, 2010

ग़ज़ल

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धुंए में डूबी हुई दूर तक फि़ज़ाएं हैं
ये ख्‍़वाहिशों की सुलगती हुई चिताएं हैं
ये अश्‍क और ये आहें तुम्‍हारी याद का ग़म
ये धड़कनें किसी साइल की बद्दुआएं हैं
(साइल : प्रार्थी)
ए ख़ुद परस्‍त मुसाफि़र तेरे तआकुब से
रवां दवां मेरे एहसास की सदाएं हैं
( तआकुब : पीछा करना, रवां दवां : प्रवाहित)
तिरी निगाहे करम की हैं मुंतजि़र कबसे
झुकाये सर तिरे दर पर मिरी वफ़ाएं हैं
( मुंतजि़र : प्रतीक्षारत )
गुलाब चेहरे हैं रोशन तमाज़तों के यहां
सरों पे उनके रवायात की रिदाएं हैं
( तमाज़त : धूप की गर्मी, रिदा - चादर )
है कैसा दौर के फ़न और क़लम भी बिकने लगे
हर एक सिम्‍त मफ़ादात की हवाएं हैं
( मफादात : लाभ का बहुवचन)
अजीब रंग है मौसम का इस बरस नुसरत
तपिश के साथ बरसती हुई घटाएं हैं
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